सकलपुरुषधर्मभ्रंशकार्यत्रजन्म-
न्यधिकमधिकमग्रे यत्परे दु:खहेतु: ।
तदपि यदि न मद्यं त्यज्यते बुद्धिमद्भि:
स्वहितमिहकिमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥21॥
जनम-जनम दु:ख देने वाली, धर्म मूल से नष्ट करे ।
तो भी बुधिधर तजैं न मदिरा, अपना हित फिर कैसे करें? ॥
अन्वयार्थ : यह मदिरा इस जन्म में समस्त पीने वाले प्राणियों के धर्म को मूल से खोने वाली है तथा परलोक में अत्यन्त तीव्र नाना प्रकार के नरकों के दु:खों की देने वाली है ऐसा होने पर भी यदि विद्वान् मद पीना न छोड़ें तो समझ लेना चाहिये कि उन मनुष्यों के द्वारा अपने हितकारी धर्म के लिये कोई भी उत्कृष्ट कार्य नहीं बन सका क्योंकि व्यसनी कुछ भी उत्तम कार्य नहीं कर सकते ॥२१॥