या: खादन्ति पलं पिवन्ति च सुरां जल्पन्ति मिथ्यावच:,
स्निह्यन्ति द्रविणार्थमेव विदधत्यर्थप्रतिष्ठाक्षतिम् ।
नीचानामपि दूरवक्रमनस: पापात्मिका: कुर्वते,
लालापानमहर्निशं न नरकं वेश्यां विहायापरम् ॥23॥
मद्य-मांस का सेवन करती, और झूठ ही कहें वचन ।
धन के लिए प्रेम दिखलाती, नष्ट करे जो यश अरु धन ॥
जो अत्यन्त पापिनी नीच-मनुष्यों की भी पीती लार ।
अरे! झूठ है इससे बढ़ कर, अन्य नरक इस लोक मँझार ॥
अन्वयार्थ : जो सदा मांस खाती हैं तथा जो निरन्तर मद्यपान करती हैं और जिनको झूठ बोलने में अंशमात्र भी संकोच नहीं होता तथा जिनका स्नेह विषयी मनुष्यों के साथ केवल धन के लिये है और जो द्रव्य तथा प्रतिष्ठा को मूल से उड़ाने वाली हैं अर्थात् वेश्या के साथ संयोग करने से धन तथा प्रतिष्ठा दोनों किनारा कर जाते हैं तथा जिनके चित्त में सदा छल कपट दगाबाजी ही रहती है और अत्यन्त पापिनी हैं तथा जो धन के लाभ से अत्यन्त नीचधीवर चमार चाण्डाल आदि की लार का भी निरन्तर पान करती हैं ऐसी वेश्याओं से दूसरा नरक संसार में है । यह बात सर्वथा झूठ है। भावार्थ—वेश्या ही नरक है ॥२३॥