+ शिकार व्यसन का निषेध -
यादुर्देहैकवित्ता वनमधिवसति त्रातृसंबन्धहीना,
भीतिर्यस्या: स्वभावाद्दशनधृततृणा नापराधं करोति ।
वध्यालं सापि यस्मिन्ननुमृगवनितामांसपिण्डस्यलोभात्,
आखेटेऽस्मिन् रतानामिहकिमुनकिमन्यत्रनो यद्विरूपम् ॥25॥
देह मात्र ही धन है वन में, वसती रक्षक नहिं कोई ।
तृण-भक्षी भयभीत स्वभावी, नहिं अपराध करे कोई ॥
मांस-पिण्ड के लोभी तथा, शिकारी उसका घात करें ।
रोग-शोक इस भव में हो अरु, नरकादिक में दु:ख भोगें ॥
अन्वयार्थ : जिस बिचारीमृगी के सिवाय देह के दूसरा कोई धन नहीं है तथा जो सदा वन में ही भ्रमण करती रहती है और जिसका कोई भी रक्षा करने वाला नहीं है तथा जिसको स्वभाव से ही भय लगता है तथा जो केवल तृण की ही खाने वाली है और किसी का जो लेशमात्र भी अपराध नहीं करती ऐसी भी दीन मृगी को केवल मांस टुकड़े के लोभी तथा शिकार के प्रेमी, जो दुष्टपुरूष बिना कारण मारते हैं उनको इस लोक में तथा परलोक में नाना प्रकार के विरूद्ध कार्यों का सामना करना पड़ता है अर्थात् इस लोक में तों वे दुष्ट पुरूष रोग शोक आदि दु:खों का अनुभव करते हैं तथा परलोक में उनको नरक जाना पड़ता है॥२५॥