तनुरपि यदि लग्ना कीटिका स्याच्छरीरे,
भवति तरलचक्षुव्र्याकुलो य: स लोक: ।
कथमिह मृगयाप्तानन्दमुत्खातशस्त्रो,
मृगमकृतविकारं ज्ञातदु:खोऽपि हन्ति ॥26॥
तन में किञ्चित् कीड़ा काटे, आँसू आवें व्याकुल हो ।
दु:ख जाने पर खुश होकर, पशुघात करें तो अचरज हो ॥
अन्वयार्थ : आचार्य महाराज कहते हैं कि जो मनुष्य शरीर से किसी प्रकार कीड़ी आदि के संबन्ध हो जाने से ही अधीर होकर जहां तहां देखने लग जाता है तथा जो दु:ख का भली भांति जानने वाला है वह मनुष्य भी शिकार में आनन्द मानकर निरपराध दीनमृग को हथियार उठाकर मारता है? यह बड़ा आश्चर्य है।