यो येनैव हत: स हन्ति बहुशो हन्त्येव यैर्वञ्चियतो,
नूनं वञ्चयते स तानपि भृशं जन्मान्तरेऽप्यत्र च ।
स्त्रीवालादिजनादपि स्फुटमिदं शास्त्रादपि श्रूयते,
नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झनविधौ लोका: कुतो मुह्यते ॥27॥
जो जिसको मारे वह उससे, मारा जाता बारम्बार ।
जो जिसको ठगता उससे ही, ठगा जाए वह बारम्बार ॥
शास्त्रों से यह बात जानते, किन्तु बड़ा आश्चर्य अरे! ।
मूढ़ जगत् यह अन्यजनों को, सदा ठगे या प्राण हरे ॥
अन्वयार्थ : स्त्री बालक आदि से तथा शास्त्र से जब यह बात भलीभांति मालूम है कि जो प्राणी इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को मारता है वह दूसरे जन्म में उस मरे हुवे प्राणी से अनन्त बार मारा जाता है तथाा जो मनुष्य इस जन्म में एक बार भी दूसरे प्राणी को ठगता है वह दूसरे जन्म में अनन्तबार उसी पूर्वभव में ठगे हुवे प्राणी से ठगाया जाता है फिर भी हे लोक तू दूसरे के ठगने में तथा मारने में छोड़ने में रात-दिन लगा रहता है यह बड़े आश्चर्य की बात है इसलिए भव्य जीवों को चाहिये कि वे ऐसे अनर्थक करने वाले दूसरे के मारने ठगने में अपने चित्तको न लगावे॥२७॥