अर्थादौ प्रचुरप्रपञ्चरनैर्ये वञ्चयन्ते परान्-
नूनं ते नरकं व्रजन्ति पुरत: पापिव्रजादन्यत: ।
प्राणा: प्राणिषु तन्निवन्धनतया तिष्ठन्ति नष्टे धने,
यावान् दु:खभरो नरे न मरणे तावानिह प्रायश: ॥28॥
जो नर छल-प्रपंच आदि से, सदा दूसरों को ठगते ।
अन्य पापियों से भी पहले, वे ही नरकों में जाते ॥
प्राणों में धन-प्राण मुख्य है, वही नष्ट जब हो जाता ।
अरे! मृत्यु के दु:ख से ज्यादा, दु:ख धन जाने पर होता ॥
अन्वयार्थ : जो दुष्टमनुष्य नाना प्रकार के छल कपट दगाबाजी से दूसरे मनुष्यों को धन आदि के लिये ठगते हैं उनको दूसरे पापीजनों से पहिले ही नरक जाना पड़ता है क्योंकि इस नीति के अनुसार मनुष्यों के धन ही प्राण हैं, यदि किसी रीति से उनका धन नष्ट हो जावे तो उनको इतना प्रबल दु:ख होता है कि जितना उनको मरते समय भी नहीं होता इसलिये प्राणियों को चाहिये कि वे प्राणस्वरूप दूसरे के धन को कदापि हरण न करे तथा न हरण करने का प्रयत्न ही करे॥२८॥ परस्त्री सेवन में क्या—२ हानि है इस बात को आचार्य दो श्लोकों में दिखाते हैं।