+ पर-स्त्री-सेवन व्यसन का निषेध -
चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशोऽतिदाहभ्रम-
क्षुत्तृष्णाहतिरोगदु:खमरणान्येतान्यहो आसताम् ।
यान्यत्रैव पराङ्गनाहतमतेस्तद्भूरिदु:खं चिरं,
श्वभ्रे भावि यदग्निदीपितपुर्लोहाङ्गनालिङ्गनात् ॥29॥
चिन्ता व्याकुलता भय एवं, बुद्धि-भ्रष्ट भ्रम देहाताप ।
क्षुधा-तृषा अरु जन्म-मरण, रोगादि दु:ख देते बहु ताप ॥
इससे अधिक दु:ख चिर भोगे, जो करता परनारी-संग ।
नरकों में फिर वह करता है, तप्त लौह-वपु आलिंगन ॥
अन्वयार्थ : जो मनुष्य परस्त्री के सेवन करने वाले हैं उनको इसी लोक में जो चिंता, व्याकुलता, भय, द्वेष, बुद्धि का भ्रष्टपना, शरीर का दाह, भूख, प्यास,रोग, जन्ममरण आदिक दु:ख होते हैं। वे कोई अधिक दु:ख नहीं किन्तु जिस समय उन परस्त्रीसेवी मनुष्यों को नरक मेंं जाना पड़ता है तथा वहां पर जब उनको परस्त्री की जगह लोह की पुतली से आलिंगन करना पड़ता है उस समय उनको अधिक दु:ख होता है।