धिक्तं पौरूषमासतामनुचितास्ताबुद्धयस्तेगुणा,
मा भून्मित्रसहायसम्पदपि सा तज्जन्म यातु क्षयम् ।
लोकानामिह येषु सत्सु भवति व्यामोहमुद्रांकितं,
स्वेप्नेऽपि स्थितिलङ्घनात्परधनस्त्रीषु प्रसक्तं मन: ॥30॥
मोही होकर जो प्राणी, करते मर्यादा उल्लंघन ।
स्वप्न मात्र भी पर-नारी, परधन में रमता जिनका मन ॥
दूर रहे ऐसी कुबुद्धि अरु, उस पौरुष को है धिक्कार ।
ऐसे गुण-सम्पत्ति नहिं होवे, नहीं मित्रजन का सहकार ॥
अन्वयार्थ : जिन पौरूष आदि के होते सन्ते अपनी स्थिति को उल्लंघन कर मोह से स्वप्न में भी परस्त्री तथा पर धन में मनुष्यों का मन आसक्त हो जावे ऐसे उस पौरूष के लिये धिक्कार हो तथा वह अनुचित बुद्धि भी दूर रहो तथा वे गुण भी नहीं चाहिये और ऐसी मित्रों की सहायता तथा संपत्ति की भी आवश्यकता नहीं।