मिथ्याद्रशां विसद्रशां च पथच्युतानां
मायाविनां व्यसनिनां च खलात्मनां च ।
संगं विमुञ्चत बुधाः कुरुतोत्तमानां
गन्तुं मतिर्यदि समुन्नतमार्ग एव ॥34॥
श्रेष्ठ मार्ग पर चलना हो तो, करो श्रेष्ठ पुरुषों का संग ।
मिथ्यादृष्टि मार्गभ्रष्ट, व्यसनी दुष्टों का तजो कुसंग ॥
अन्वयार्थ : हे भव्यजीवो यदि तुम उत्तममार्ग में जाने के लिये चाहते हो तो तुम कदापि मिथ्यादृष्टि विपरीत बुद्धि मार्गभ्रष्ट छली व्यसनी दुष्टजीवों के साथ संबंध मत करो यदि तुमको संबंध ही करना है तो उत्तम मनुष्यों के साथ ही संबंध करो।