कलावेकः साधुर्भवति कथमप्यत्र भुवने
स चाघ्रातः क्षुद्रैः कथमकरुणैर्जीवति चिरम् ।
अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि विचरच्चञ्चुचरतां
बकोटानामाग्रे तरलशफ री गच्छति कियत् ॥36॥
कलिकाल में इस दुनिया में, कहीं कोई साधु होता ।
वह भी दुष्टों के आघातों से, चिरजीवी नहिं होता ॥
ग्रीष्म ऋतु में सूखे सर में, चोंच हिलाते बगुलों से ।
चञ्चल मछली कहाँ जाए वह, कैसे बच सकती उनसे? ॥
अन्वयार्थ : जिस समय ग्रीष्म ॠतु में तालाबों का पानी सूख जाता है, उस समय पानी के अभाव में ही बेचारी मछलियाँ मर जाती हैं । यदि दैवयोग से दस-पाँच बची भी रहें तो लम्बीचोंचों के धारी बगुले बात ही बात में उनको गटक जाते हैं; इसलिए ग्रीष्म ॠतु में मछलियों का नामो-निशान भी दृष्टिगोचर नहीं होता । उसी प्रकार प्रथम तो इस कलिकाल में सज्जन उत्पन्न ही नहीं होते । यदि दैवयोग से कोई उत्पन्न होते हैं तो दयारहित दुष्ट पुरुषों के फन्दे में फँस कर, अधिक समय तक जीवित रह नहीं पाते; इसलिए इस कलिकाल में प्राय: सज्जनों का अभाव ही है ।