+ मुनिव्रत-धारण करना, शरीरादि के त्याग में हेतुभूत क्रिया -
(शार्दूलविक्रीडित)
स्वं शुद्धं प्रविहाय चिद्गुणमयं भ्रान्त्याणुमात्रेऽपि यत्
संबन्धाय मतिः परे भवति तद्बन्धाय मूढात्मनः ।
तस्मात्त्याज्यमशेषमेव महतामेतच्छरीरादिकं
तत्कालादिविनादियुक्ति त इदं तत्त्यागकर्म व्रतम् ॥39॥
शुद्ध चिदानन्दमय स्वरूप तज, अणुमात्र पर में निज-भ्रान्ति ।
मूढ़जनों की इस कुबुद्धि से, होता मात्र कर्म का बन्ध ॥
इसीलिए देहादि समस्त पदार्थों में ममता है त्याज्य ।
आयुकर्म वश देह रहे तो भी, मुनि होना तन का त्याग ॥
अन्वयार्थ : अपने शुद्ध चैतन्य को छोड़ कर, परमाणु मात्र परपदार्थों में भी चैतन्यगुण के भ्रम से यदि मूढ़ पुरुषों की बुद्धि लग जाए तो उस बुद्धि से केवल कर्मबन्ध ही होता है; इसलिए सज्जन पुरुषों को शरीर आदि के समस्त पदार्थों का त्याग अवश्य कर देना चाहिए । यदि आयुकर्म के प्रबल होने से शरीरादि का त्याग न हो सके तो शरीरादि के त्याग करने के लिए मुनिव्रत ही धारण करना योग्य है क्योंकि मुनिव्रत धारण करना ही शरीर आदि के त्याग करने में हेतुभूत क्रिया है ।