मुक्त्वा मूलगुणान् यतेर्विदधतः शेषेषु यत्नं परं
दण्डो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वाञ्छतः ।
एकं प्राप्तमरेः प्रहारमतुलं हित्वा शिरच्छेदकं
रक्षत्यङ्गुलिकोटिखण्डनकरं को ऽन्यो रणे बुद्धिमान् ॥40॥
मूलगुणों को छोड़ यत्न करता उत्तरगुण-पालन में ।
पूजादिक वाञ्छक को देते, दण्ड मूलगुण-छेदन में ॥
कौन सुधी रण में शिर-छेदक, के प्रहार से नहीं बचे? ।
अंगुलि-छेदक अल्पप्रहार से, रक्षा करना वह चाहे? ॥
अन्वयार्थ : युद्ध करते समय अनेक प्रकार के प्रहार होते हैं; उनमें कई तो शिर के छेदने वाले होते हैं और कई अंगुलि के अग्र भाग को छेदने वाले होते हैं । यदि कोई पुरुष शिर के छेदने वाले प्रहार को छोड़ कर, अंगुली के अग्र भाग का छेदन करने वाले प्रहार से अपनी रक्षा करे तो जिस प्रकार उसका रक्षा करना व्यर्थ है; उसी प्रकार जो यति, मूलगुणों को छोड़ कर शेष उत्तरगुणों को पालन करने के लिए प्रयत्न करते हैं तथा निरन्तर पूजा आदि को चाहते हैं, उनको आचार्य मूलछेदक दण्ड देते हैं । इसलिए मुनियों को प्रथम मूलगुणों को पालना चाहिए, पीछे उत्तरगुणों का पालन करना चाहिए ।