म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाद्यारम्भतः संयमो
नष्टे व्याकुलचित्तताथ महतामप्यन्यतः प्रार्थनम् ।
कौपीनेऽपि हृते परैश्च झटिति क्रोधः समुत्पद्यते
तन्नित्यं शुचि रागहृत् शमवतां वस्त्रं ककुम्मण्डलम् ॥41॥
वस्त्र मलिन होने पर करना, पड़े जलादिक का आरम्भ ।
फटने पर आकुलता हो, मांगे तो नष्ट अयाचक गुण ॥
यदि कोई ले जाए लँगोटी, तो क्रोधित होवे तत्काल ।
अत: पवित्र राग-वर्जक, दिक्-मण्डल ही है उत्तम वस्त्र ॥
अन्वयार्थ : यदि संयमी वस्त्र रखता है तो उसके मलिन होने पर, उसे धोने के लिए जल आदि का आरम्भ उनको करना पड़ता है तथा यदि संयमी को जल आदि का आरम्भ करना पड़ता है तो उनका संयम ही कहाँ रहा? तथा यदि वह वस्त्र नष्ट हो जाए तो उनके चित्त में व्याकुलता उत्पन्न होती है । उसके लिए यदि वे किसी से प्रार्थना करते हैं तो उनकी अयाचक-वृत्ति छूटती है । यदि वे वस्त्रों को छोड़ कर कौपीन लँगोट ही रखें तो भी उसके खो जाने पर उनको क्रोध पैदा होता है । इसलिए समस्त वस्त्रों को त्याग कर, मुनिगणों को नित्य पवित्र, राग का नाशक, दिशामण्डलरूप ही वस्त्र है - ऐसा समझना चाहिए ।