काकिन्या अपि संग्रहो न विहितः क्षौरं यया कार्यते
चित्तक्षेपकृदस्त्रमात्रमपि वा तत्सिद्धये नाश्रितम् ।
हिंसाहेतुरहो जटाद्यपि तथा यूकाभिरप्रार्थनैः
वैराग्यादिविवर्धनाय यतिभिः केशेषु लोचः कृतः ॥42॥
कौड़ी का भी नहीं परिग्रह, अत: कटा सकते नहिं केश ।
कैंची आदि शस्त्र न रखते, क्योंकि उपजता चित में क्लेश ॥
जटा रखें तो हिंसा होती, अत: अयाचक-वृत्ति रखें ।
वैराग्यादि बढ़ाने हेतु, यति स्वयं कचलोंच करें ॥
अन्वयार्थ : मुनिगण, अपने पास एक कौड़ी भी नहीं रखते, जिससे वे दूसरे के द्वारा मुण्डन करा सकें । मुण्डन के लिए छुरा, कैंची आदि शस्त्र भी नहीं रखते क्योंकि उनके रखने से क्रोधादि की उत्पत्ति होती है । वे जटा भी नहीं रख सकते क्योंकि जटाओं में जुएँ आदि अनेक जीवों की उत्पत्ति होती है? उसे रखने से हिंसा होती है तथा मुण्डन कराने के लिए वे दूसरे से द्रव्य भी नहीं माँग सकते क्योंकि इससे उनकी अयाचक-वृत्ति का परिहार होता है । इसलिए वैराग्य की अतिशय वृद्धि के लिए ही मुनिगण, अपने हाथों से केशों को उपाटते हैं, इसमें अन्य कोई मानादि कारण नहीं है ।