+ मुनिराज द्वारा ममत्वरहित होने का उपदेश-चिन्तन -
(शार्दूलविक्रीडित)
एकस्यापि ममत्वमात्मवपुषः स्यात्संसृतेः कारणं
का बाह्यार्थकथा प्रथीयसि तपस्याराध्यमानेऽपि च ।
तद्वास्यां हरिचन्दनेऽपि च समः संश्लिष्टतोऽप्यङ्गतो
भिन्नं स्वं स्वयमेकमात्मनि धृतं पश्यत्यजस्रं मुनिः ॥44॥
तप-आराधन करके भी यदि, देह मात्र में हो ममता ।
तो संसार-भ्रमण होता फिर, बाह्य वस्तु की कौन कथा? ॥
अत: देह पर पड़े कुल्हाड़ी, या होवे चन्दन का लेप ।
तो भी निज को निज से निज में, मुनिवर तन से भिन्न लखें ॥
अन्वयार्थ : विस्तीर्ण तप का आराधन करने पर भी यदि अपने एक शरीर में भी 'यह मेरा है' - ऐसा ममत्व हो जाए तो वह ममत्व ही संसार-परिभ्रमण का कारण हो जाता है । तब यदि शरीर से अतिरिक्त धन-धान्य में ममता की जाएगी तो वह ममता क्या न करेगी? - ऐसा जान कर, चाहे कोई उनके शरीर में कुल्हाड़ी मारे, चाहे उनके शरीर में चन्दन का लेप करे तो भी कुल्हाड़ी और चन्दन में समभावी होकर, मुनिगण क्षीर-नीर के समान आत्मा-शरीर का सम्बन्ध होने पर भी स्वयं अपने में, अपने से, अपने को निरन्तर भिन्न देखते हैं ।