+ शान्तरस के लोलुपी निर्ग्रन्थ मुनियों के समताभाव का स्वरूप -
(शिखरिणी)
तृणं वा रत्नं वा रिपुरथ परं मित्रमथवा
सुखं वा दुःखं वा पितृवनमहो सौधमथवा ।
स्तुतिर्वा निन्दा वा मरणमथवा जीवितमथ
स्फुटं निर्ग्रंथानां द्वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥45॥
तृण हो अथवा रत्न तथा, रिपु हो या परम मित्र भी हो ।
सुख हो अथवा दुख हो, राजमहल हो या मसान-भू हो ॥
निन्दा हो अथवा स्तुति हो, मरण होय या जीवन हो ।
सबमें समता धारण करते, शान्त चित्त निर्ग्रन्थ अहो! ॥
अन्वयार्थ : जो मुनि, परिग्रह से रहित और शान्तस्वरूप हैं; वे तृण से घृणा भी नहीं करते हैं और रत्न को अच्छा भी नहीं समझते हैं । अपने हित के करने वाले को मित्र नहीं समझते तथा अहित करने वाले को वैरी नहीं समझते हैं । सुख होने पर सुख नहीं मानते हैं तथा दुःख होने पर दुःख नहीं मानते हैं । श्मशान-भूमि को बुरी नहीं कहते हैं तथा राज-मन्दिर को अच्छा नहीं कहते हैं । स्तुति होने पर सन्तुष्ट नहीं होते हैं तथा निन्दा होने पर रुष्ट नहीं होते हैं । इस प्रकार वे जीवन-मरण दोनों को ही समान मानते हैं ।