+ मुनियों के एकान्तवास में आत्मानन्द का अनुभव लेने की भावना -
(मालिनी)
वयमिह निजयूथ,-भ्रष्टसारंगकल्पाः;
परपरिचयभीताः, क्वापि किंचिच्चरामः ।
विजनमधिवसामो न व्रजाम:प्रमाद:;
सुकृतमनुभवामो,यत्र तत्रोपविष्टा ॥46॥
मृगवत् परिजन से च्युत होकर, यत्र-तत्र वन में विचरें ।
फिर से परिचय ना हो जाए - इस भय से एकान्त वसें ॥
होवे नहीं प्रमाद कभी भी, अहो! सदा प्रतिबुद्ध रहें ।
चाहे जहाँ बैठ कर कब हम, निजानन्द रस-पान करें? ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार मृग, अपने समूह से जुदा होकर तथा दूसरों से भयभीत होकर जहाँ-तहाँ विचरता-फिरता है, एकान्त में रहता है, प्रतिसमय प्रतिबुद्ध रहता है, जहाँ-तहाँ बैठ कर आनन्द भोगता है; उसी प्रकार हम भी अपने कुटुम्बियों से जुदे हुए, परन्तु दूसरे गृहस्थों से परिचय न हो जावे, इससे भयभीत होकर, यहाँ-वहाँ विचरते हैं, एकान्तवास में रहते हैं, प्रमादी नहीं होते तथा जहाँ-तहाँ बैठ कर अपने आत्मानन्द का अनुभव करते हैं ।