कति न कति न वारान्, भूपतिर्भूरिभूतिः;
कति न कति न वारानत्र जातोऽस्मि कीटः ।
नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्यं न दु:खं;
जगति तरलरूपे, किं मुदा किं शुचा वा ॥47॥
बड़ी बड़ी सम्पति के धारक, भूपति कितनी बार हुए ।
इस जग में हम क्षुद्र कीट भी, जाने कितनी बार हुए ॥
अत: परिणमनशील जगत् में, सुख-दुख सदा नहीं रहते ।
ऐसा निश्चित जान सुधीजन, हर्ष-विषाद नहीं करते ॥
अन्वयार्थ : इस संसार में हम कितनी-कितनी बार तो बड़ी-बड़ी सम्पत्ति के धारी राजा हो चुके हैं और कितनी-कितनी बार इसी संसार में हम क्षुद्र कीड़े भी हो चुके हैं; इसलिए यही मालूम होता है कि चंचलरूप इस संसार में किसी का सुख और दु:ख निश्चित नहीं है, अत: सुख और दु:ख के होने पर हर्ष और विषाद कदापि नहीं करना चाहिए ।