+ उक्त सम्यक् भावनाओं के द्वारा संवर-निर्जरापूर्वक मोक्ष की भावना -
(पृथ्वी)
प्रतिक्षणमिदं हृदि, स्थितमतिप्रशान्तात्मनो;
मुनेर्भवति संवरः, परमशुद्धिहेतुर्ध्रुवम् ।
रजः खलु पुरातनं, गलति नो नवं ढौकते;
ततोऽतिनिकटं भवेदमृतधाम दु:खोज्झितम् ॥48॥
परम शान्त स्थिरमति मुनि, प्रतिक्षण करते हैं उक्त विचार ।
इससे परम शुद्धि उत्पादक, होता परिणति में संवर ॥
आत्म-प्रदेशों में पहले से, बँधे कर्म खिरने लगते ।
नये न आते दु:खरहित, अमृतमय मुक्ति निकट वसे ॥
अन्वयार्थ : परम शान्त मुद्रा के धारी मुनियों के द्वारा इस प्रकार भावना करने से परम शुद्धि का करनेवाला संवर होता है तथा उसके होने पर जो कुछ प्राचीन कर्म आत्मा के साथ लगे रहते हैं, वे गल जाते हैं, नवीन कर्मों का आगमन भी बन्द हो जाता है । इस प्रकार उन मुनियों के लिए समस्त प्रकार के दुःखों से रहित मुक्ति भी सर्वथा समीप हो जाती है ।