+ उद्यमी महात्मा महामुनियों के लिए संसाररूपी समुद्र कुछ भी नहीं -
(शिखरिणी)
प्रबोधो नीरन्ध्रं, प्रवहणममन्दं पृथुतप:;
सुवायुर्यैः प्राप्तो, गुरुगणसहायाः प्रणयिनः ।
कियन्मात्रस्तेषां, भवजलधिरेषोऽस्य च परः;
कियद्दूरे पार:, स्फुरति महतामुद्यमयुताम् ॥49॥
सम्यग्ज्ञान जहाज निरन्ध्र, अमन्द पवन तपरूपी हो ।
बड़े-बड़े गुरुवर स्नेही जन, जिनके सदा सहायी हों ॥
ऐसे उद्यमशील महामुनियों को भवदधि कितना है? ।
चुल्लुभर रह गया अहो! बस, निकट किनारा आया है ॥
अन्वयार्थ : जिन मुनियों के पास छिद्ररहित सम्यग्ज्ञानरूपी जहाज उपस्थित है, अमन्द विस्तीर्ण तपरूपी पवन भी जिनके पास है तथा स्नेही बड़े-बड़े गुरु भी जिनके सहायी हैं; उन उद्यमी महात्मा मुनियों के लिए यह संसाररूपी समुद्र कुछ भी नहीं है तथा इस संसाररूपी समुद्र का पार भी उनके समीप में ही है ।