![](../../../../../images/common/prev.jpg)
अभ्यस्यतान्तरदृशं किमु, लोकभक्त्या;
मोहं कृशीकुरुत किं, वपुषा कृशेन ।
एतद्द्वयं यदि न किं, बहुभिर्नियोगैः;
क्लेशैश्च किं किमपरैः, प्रचुरैस्तपोभिः ॥50॥
हे मुनि! अन्तर्दृष्टि करो, क्या लाभ लोकरंजन में है? ।
करो मोह कृश क्योंकि मात्र तन-कृश करने से क्या फल है ?
यदि ये दोनों कार्य नहीं तो, संयम-नियम व्यर्थ जानो ।
काय-क्लेश अरु प्रचुर तपस्या, करने से क्या लाभ कहो ?
अन्वयार्थ : भो मुनिगण! आनन्दस्वरूप शुद्धात्मा का अनुभव करो, लोक के रिझावने के लिए प्रयत्न मत करो, मोह को कृश करो, शरीर को कृश करने में कुछ भी नहीं रखा है क्योंकि जब तक तुम इन दो बातों को न करोगे, तब तक तुम्हारा यम-नियम करना भी व्यर्थ है, तुम्हारा क्लेश सहना भी बिना प्रयोजन का है और तुम्हारे द्वारा नाना प्रकार के किये हुए तप भी व्यर्थ हैं ।