जुगुप्सते संसृतिमत्र मायया;
तितिक्षते प्राप्तपरीषहानपि ।
न चेन्मुनिर्दृष्टकषायनिग्रहात्;
चिकित्सति स्वान्तमघप्रशान्तये ॥51॥
जग की निन्दा करें कपट से, और परीषह-सहन करें ।
पाप-शान्ति के लिए यदि मुनि, नहीं कषायों को जीतें॥
अन्वयार्थ : जो मुनि, आत्मा का सर्वथा अहित करने वाली दुष्ट कषायों को जीत कर, पापों के नाश के लिए अपने चित्त को स्वस्थ बनाना नहीं चाहता; वह मुनि, समस्त लोक के सामने कपट से संसार की निन्दा करता है तथा कपट से ही वह क्षुधा, तृषा आदि बाईस परीषहों को सहन करता है ।