हिंसा प्राणिषु कल्मषं भवति सा, प्रारम्भतः सोऽर्थतः;
तस्मादेव भयादयोऽपि नितरां, दीर्घा ततः संसृतिः ।
तत्रासातमशेषमर्थत इदं, मत्वेति यस्त्यक्तवान्;
मुक्त्यर्थी पुनरर्थाश्रितवता, तेनाहत: सत्पथ:॥52॥
पापोत्पादक हिंसा, आरम्भ से होती, धन से आरम्भ ।
धन से हो उत्पन्न भयादिक, जिनसे होता दीर्घ-भ्रमण ॥
जग के घोर दु:ख सब धन से, यही जान जो करते त्याग ।
वे ही मोक्षार्थी हैं किन्तु, धनाश्रित करते सत्पथ नाश ॥
अन्वयार्थ : प्राणियों को मारने से हिंसा पाप होता है; वह हिंसा, आरम्भ से होती है और वह आरम्भ, धन के होने पर होता है । धन के होने पर ही भय आदि की उत्पत्ति होती है, भय आदि के होने से दीर्घ संसार होता है तथा दीर्घ संसार से अनन्त दुःख होते हैं; इस प्रकार सब बातें धन से होती हैं - इस बात को जान कर, मोक्ष के अभिलाषी मुनियों ने धन का त्याग कर दिया है, किन्तु जिसने धन का आश्रय लिया है, उसने सच्चे मार्ग का नाश ही कर दिया है - ऐसा समझना चाहिए ।