+ कलिकाल का ही माहात्म्य -
(शार्दूलविक्रिडीत)
दुर्ध्यानार्थ वद्यकारणमहो, निर्ग्रन्थताहानये;
शय्याहेतु तृणाद्यपि प्रशमिनां, लज्जाकरं स्वीकृतम् ।
यत्तत्किं न गृहस्थयोग्यमपरं, स्वर्णादिकं साम्प्रतं;
निर्ग्रन्थेष्वपि चेत्तदस्ति नितरां, प्राय: प्रविष्ट: कलि: ॥53॥
शैय्या हेतु गहें मुनि तृण भी, तो उससे होता दुर्ध्यान ।
पाप और लज्जा का कारण, अपरिग्रह की होती हानि॥
तो गृहस्थ के योग्य धनादिक, कैसे रख सकते निर्ग्रन्थ? ।
किन्तु रखें तो जानो यह है, कलिकाल का ही माहात्म्य॥
अन्वयार्थ : निर्ग्रन्थ मुनि, शय्या के लिए यदि घास आदि को भी स्वीकार कर लें तो उनको इसे स्वीकार करना भी खोटे ध्यान के लिए ही होता है, यही निन्दा का करने वाला, निर्ग्रन्थता में हानि पहुँचाने वाला तथा लज्जा को करने वाला भी होता है; अतः वे निर्ग्रन्थ यतीश्वर, गृहस्थ के योग्य सुवर्ण आदि को कैसे रख सकते हैं?