कादाचित्को बन्धः, क्रोधादेः कर्मणः सदा सङ्गात् ।
नातः क्वापि कदाचित्, परिग्रहग्रहवतां सिद्धिः ॥54॥
क्रोधादिक से बन्ध कदाचित्, प्रतिक्षण बन्ध परिग्रह से ।
अत: परिग्रहधारी मुनि नहिं, कभी कहीं भी सिद्धि लहें॥
अन्वयार्थ : क्रोधादि कर्मों के द्वारा तो प्राणियों को कर्मों का बन्ध कभी-कभी ही होता है, किन्तु परिग्रह से प्रतिक्षण बन्ध होता रहता है; अतएव परिग्रहधारियों को किसी काल में तथा किसी प्रदेश में भी सिद्धि नहीं होती, इसलिए भव्य जीवों को कदापि धन-धान्य से ममता नहीं रखनी चाहिए ।