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मोक्षेऽपि मोहादभिलाषदोषो;
विशेषतो मोक्षनिषेधकारी ।
यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षु:;
भवेत् किमन्यत्र कृताभिलाषः॥55॥
अरे! मोह से शिव-वाञ्छा भी, दोषरूप जो बन्ध करे ।
अत: निजानन्द लीन मुमुक्षु, कैसे पर की चाह करे?॥
अन्वयार्थ : स्त्री-पुत्र आदि की अभिलाषा करना तो दूर रहो, यदि मोक्ष के लिए भी अभिलाषा की जाए तो वह दोषस्वरूप समझी जाती है, वह भी मोक्ष की निषेध करने वाली ही होती है; इसलिए जो मुनि, अपनी आत्मा के रस में लीन हैं, मोक्ष के अभिलाषी हैं, वे स्त्री-पुत्र आदि में अभिलाषा कैसे कर सकते हैं ?