परिग्रहवतां शिवं, यदि तदानलः शीतलो;
यदीन्द्रियसुखं सुखं, तदिह कालकुटः सुधा ।
स्थिरा यदि तनुस्तदा, स्थिरतरं तडिदम्बरं;
भवेऽत्र रमणीयता, यदि तदीन्द्रजालेऽपि च॥56॥
मुक्ति लहें यदि परिग्रहधारी, तो अग्नि भी शीतल हो ।
इन्द्रिय-सुख यदि सच्चा सुख हो, तो विष को भी सुधा कहो॥
देह यदि स्थिर मानो तो, नभ-विद्युत् भी स्थिर हो ।
यदि जग को रमणीय कहो, तो इन्द्रजाल रमणीय कहो॥
अन्वयार्थ : यदि परिग्रहधारियों को भी मुक्ति कही जाएगी तो अग्नि को भी शीतल कहना पड़ेगा । यदि इन्द्रियों से पैदा हुए सुख को भी सुख कहोगे तो विष को भी अमृत मानना पड़ेगा । यदि शरीर को स्थिर कहोगे तो आकाश में बिजली को भी स्थिर कहना पड़ेगा तथा संसार में रमणीयता कहोगे तो इन्द्रजाल में भी रमणीयता कहनी पड़ेगी ।