स्मरमपि हृदि येषां, ध्यानवह्निप्रदीप्ते;
सकलभुवनमल्लं, दह्यमानं विलोक्य ।
कृतभिय इव नष्टा:, ते कषाया न तस्मिन्-
पुनरपि हि समीयुः, साधवस्ते जयन्ति ॥57॥
ध्यान-अग्नि में त्रिभुवनजयी, काम जलता देख अहो! ।
भय से भगी कषायें पुन: न, जीवित हों वे मुनि जयवन्त॥
अन्वयार्थ : वे यतीश्वर, सदा इस लोक में जयवन्त हैं कि जिन यतीश्वरों के हदय में ध्यानरूपी अग्नि के जाज्वल्यमान होने पर, तीनों लोक को जीतने वाले कामदेवरूपी प्रबल योद्धा को जलते हुए देख कर, कषायें भय से ही मानो भाग गईं तथा ऐसी भागीं कि फिर न आ सकीं ।