अनर्घ्य - रत्नत्रय-सम्पदोऽपि;
निर्ग्रन्थतायाः पदमद्वितीयम् ।
जयन्ति शान्ता: स्मरवैरिवध्वा:;
वैधव्यदास्ते गुरवो नमस्या: ॥58॥
रत्नत्रय अनमोल सम्पदा, तो भी पद निर्ग्रन्थ धरें ।
शान्त रहें पर रति को विधवा, किया सुगुरु को नमन करें ॥
अन्वयार्थ : अमूल्य रत्नत्रयरूपी सम्पत्ति के धारी होकर भी जो निर्ग्रन्थ पद के धारक हैं, शान्त मुद्रा के धारी होने पर भी जो कामदेवरूपी वैरी की स्त्री को विधवा करने वाले हैं - ऐसे वे उत्तम गुरु सदा नमस्कार करने योग्य हैं ।