+ स्व-परोपकारक श्री आचार्य परमेष्ठी की स्तुति -
(शार्दूलविक्रीडित)
ये स्वाचारमपारसौख्यसुतरो:, बीजं परं पञ्चधा;
सद्बोधाः स्वयमाचरन्ति च परानाचारयन्त्येव च ।
ग्रन्थग्रन्थिविमुक्तमुक्तिपदवीं, प्राप्ताश्च यैः प्रापिताः;
ते रत्नत्रयधारिणः शिवसुखं, कुर्वन्तु नः सूरयः ॥59॥
परम-सौख्य-तरु-बीजभूत जो, पञ्चाचार स्वयं पालें ।
शिष्यों से आचरण कराएँ, अरु सम्यक् श्रुत को धारें ॥
ग्रन्थ-ग्रन्थि से रहित मुक्ति-पद, प्राप्त करें अरु करवाएँ ।
रत्नत्रयधारी आचार्य, हमें भी मुक्ति-प्रदान करें ॥
अन्वयार्थ : जो सद्ज्ञान के धारक आचार्य, अपार सौख्यरूपी वृक्ष को उत्पन्न करने वाले पाँच प्रकार के आचार का स्वयं आचरण करते हैं तथा दूसरों को आचरण कराते हैं; जहाँ पर किसी प्रकार के परिग्रह का लेश नहीं - ऐसी मुक्ति में जो स्वयं जाते हैं तथा दूसरों को भी पहुंचाते हैं - ऐसे निर्मल रत्नत्रय के धारी आचार्यवर हमारे लिए मोक्ष सुख प्रदान करें ।