शिष्याणामपहाय मोहपटलं, कालेन दीर्घेण यत्;
जातं स्यात्पदलाञ्छितोज्ज्वलवचो,-दिव्याञ्जनेन स्फुट् ।
ये कुर्वन्ति दृशं परामतितरां, सर्वावलोकक्षमां;
लोके कारणमन्तरेण भिषजा:, ते पान्तु नोऽध्यापकाः ॥61॥
जो अनादि से लगा हुआ है, शिष्यगणों का मोह-पटल ।
स्याद्वाद दिव्यांजन से जो, उनकी दृष्टि हो निर्मल ॥
जग के सब पदार्थ-दर्शन की, क्षमता भी उत्पन्न करें ।
बिन कारण जो वैद्य जगत् के, उपाध्याय मम त्राण करें ॥
अन्वयार्थ : जो उपाध्याय परमेष्ठी, स्याद्वाद से अविरोधी अपने उपदेशरूपी दिव्य अंजन से अनादिकाल से लगे हुए मोह के परदे को हटा कर, शिष्यों की दृष्टि को अत्यन्त निर्मल तथा समस्त पदार्थों के देखने में समर्थ बनाते हैं - ऐसे वे बिना कारण के ही निःस्वार्थ वैद्य उपाध्याय परमेष्ठी! इस संसार में मेरी रक्षा करें ।