उन्मुच्यालयबन्धनादपि दृढोत्कायेऽपि वीतस्पृहा;
चित्ते मोहविकल्पजालमपि यद्,-दुर्भेद्यमन्तस्तमः ।
भेदायास्य हि साधयन्ति तदहो, ज्योतिर्जितार्कप्रभं;
ये सद्बोधमयं भवन्तु भवतां, ते साधवः श्रेयसे ॥62॥
मोहजन्य दुर्भेद्य विकल्पों, का समूह जो अन्तर में ।
उसे भेदने हेतु ज्ञान की, ज्योति निरन्तर सिद्ध करें ॥
दृढ़ गृह-बन्धन तोड़ मुनीश्वर, तन से भी ममत्व त्यागें ।
निज-कल्याण हेतु हम उन गुरु-चरणों में नित नमन करें॥
अन्वयार्थ : जो साधु परमेष्ठी, अत्यन्त कठिन गृहरूपी बन्धन से अपने को छुड़ा कर तथा अपने शरीर से भी इच्छारहित होकर कठिनता से भेदने योग्य मोह से पैदा हुए विकल्पों के समूहरूपी भीतरी अन्धकार को नाश करने के लिए, सूर्य की प्रभा को भी नीची करने वाली सम्यग्ज्ञानरूपी ज्योति को निरन्तर सिद्ध करते रहते हैं - ऐसे उन साधु परमेष्ठी के लिए हमारा नमस्कार है अर्थात् वे हमारा कल्याण करें ।