+ ग्रीष्मॠतु में पर्वत के शिखर पर स्थित मुनीश्वरों की साधना -
(शार्दूलविक्रीडित)
प्रोद्यत्तिग्मकरोग्रतेजसि लसत्, चण्डानिलोद्यद्दिशि;
स्फारीभूतसुतप्तभूमिरजसि, प्रक्षीणनद्यम्भसि ।
ग्रीष्मे ये गुरुमेदिनीध्रशिरसि, ज्योतिर्निधायोरसि;
ध्वान्तध्वंसकरं वसन्ति मुनय:, ते सन्तु नः श्रेयसे ॥64॥
तीक्ष्ण तेजयुत सूर्य किरण हो, चहुँ दिशि उष्ण पवन झकझोर ।
गरम रेत भी तीव्र तापमय, सूख गया नदियों में नीर ॥
ग्रीष्मऋतु में गिरि-शिखरों पर, ज्ञानज्योति निज उर में धार ।
मोह-तिमिर का नाश करें, उन गुरु-चरणों में, हो कल्याण ॥
अन्वयार्थ : जिस ग्रीष्मॠतु में अत्यन्त तीक्ष्ण धूप पड़ती हैं, चारों दिशाओं में भयंकर लू चलती है, जिस ॠतु में अत्यन्त सन्ताप को देने वाली गरम रेत फैल जाती है तथा नदियों का पानी सूख जाता है - ऐसी भयंकर ग्रीष्मॠतु में जो मुनि, समस्त अन्धकार को नाश करने वाली सम्यग्ज्ञानरूपी ज्योति को अपने मन में रख कर, अत्यन्त ऊँचे पहाड़ की चोटी पर निवास करते हैं, उन मुनियों के लिए हमारा नमस्कार हो अर्थात् वे हमारा कल्याण करें ।