ते वः पान्तु मुमुक्षवः कृतरवै,-रब्दैरतिश्यामलैः;
शश्वद्वारिवमद्भिरब्धिविषय, - क्षारत्वदोषादिव ।
काले मज्जदिले पतद्गिरिकुले, धावद्धुनीसंकुले;
झंझावातविसंस्थुले तरुतले, तिष्ठन्ति ये साधव: ॥65॥
अतिश्यामल मेघों की गरजन और बरसती मूसलधार ।
गिरें पाषाण, धरा धसके अरु, नदियों में हो वेग अपार ॥
पवन वेग युत जलवर्षा में, तरु-तल तिष्ठें जो तप-धार ।
रक्षा करें हमारी गुरुवर, चरणों में हो नमन हजार ॥
अन्वयार्थ : जिस वर्षाकाल में काले-काले मेघ भयंकर शब्द करते हैं, समुद्र के क्षार-दोष से ही मानों जो जहाँ-तहाँ खारा जल वर्षाते हैं, जिस काल में जमीन नीचे को धसक जाती है, पर्वतों से पत्थर गिरते हैं, जल से भरी हुई नदियाँ सब जगह दौड़ती फिरती हैं तथा जो वर्षाकाल वृष्टिसहित पवन से भयंकर हो रहा है - ऐसे भयंकर वर्षाकाल में जो मोक्षाभिलाषी मुनि, वृक्षों के नीचे बैठकर तप करते हैं, उन मुनियों के लिए हमारा नमस्कार है ।