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म्लायत्कोकनदे गलत्कपिमदे, भ्रश्यद्द्रौघच्छदे;
हर्षद्रो -दरिद्रके हिमॠतावत्यन्तदुःख-प्रदे ।
ये तिष्ठन्ति चतुष्पथे पृथुतपः, सौधस्थिताः साधवो;
ध्यानोष्मप्रहतोग्रशैत्यविधुरा:, ते मे विदध्युः श्रियम् ॥66॥
कमल मलिन हों, कपि मद गलता, वृक्षों के पत्ते जलते ।
अतिदु:खदायक शीतऋतु में, दीनों के हों रोम खड़े ॥
ध्यान-अग्नि से शीत नशें अरु, तप-महलों को करें निवास ।
निर्भय रहें चतुष्पथ में वे, पतिवर दें लक्ष्मी अविनाश ॥
अन्वयार्थ : जिस शीतकाल में कमल मुरझा जाते हैं, बन्दरों का मद गल जाता है, वृक्षों के पत्ते जल जाते हैं, वस्त्ररहित दरिद्रों के शरीर पर रोांच खड़े हो जाते हैं तथा और भी जो नाना प्रकार के दुःखों को देने वाला है - ऐसे भयंकर शीतकाल में महातपस्वी ध्यानरूपी अग्नि से समस्त शीत को नाश करने वाले यतीश्वर, खुले मैदान में निर्भयता से निवास करते हैं - ऐसे यतीश्वर मुझे भी अविनाशी लक्ष्मी प्रदान करें ।