![](../../../../../images/common/prev.jpg)
काल-त्रये बहिरवस्थित-जातवर्षा-;
शीतातप-प्रमुख-संघटितोग्र-दुःखे ।
आत्मप्रबोधविकले सकलोऽपि काय-;
क्लेशो वृथा वृतिरिवोज्झितशालिवप्रे ॥67॥
आत्मज्ञान बिन सहें शीत-वर्षा एवं ग्रीषम-आताप ।
धान्य रहित खेतों में बाड़, लगाने जैसा वृथा कलाप ॥
अन्वयार्थ : जो मुनि, अपने आत्मज्ञान की कुछ भी परवाह न कर, बाहर में वर्षा-शीत-ग्रीष्म तीनों कालों में उत्पन्न हुए दुःखों को सहन करते हैं, उनका उस प्रकार का दुःख सहना वैसा ही निरर्थक मालूम होता है, जैसा कि धान के कट जाने पर खेत को बाड़ लगाना निरर्थक होता है; इसलिए मुनियों को आत्मज्ञान पर विशेष ध्यान देना चाहिए ।