+ मुनियों की पूजन के माध्यम से जिनवाणी एवं केवली भगवान की पूजन -
(शार्दूलविक्रीडित)
सम्प्रत्यस्ति न केवली किल कलौ, त्रैलोक्यचूडामणिः;
तद्वाचः परमासतेऽत्र भरत,-क्षेत्रे जगद्द्योतिकाः ।
सद्रत्नत्रयधारिणो यतिवरा:, तेषां समालम्बनं;
तत्पूजा जिनवाचि पूजनमत:, साक्षाज्जिन: पूजित: ॥68॥
कलिकाल में त्रिभुवन-चूड़ामणि केवलि भगवान नहीं ।
भरतक्षेत्र में जगत्-प्रकाशक, विद्यमान उनकी वाणी ॥
रत्नत्रयधारी मुनिवर हैं, श्री जिनवाणी के आधार ।
उनको पूजा, यानि पूजा-वाणी, पूजा जिन-साक्षात् ॥
अन्वयार्थ : यद्यपि इस समय कलिकाल में तीन लोक के द्वारा पूजनीय केवली भगवान विराजमान नहीं हैं तो भी इस भरतक्षेत्र में समस्त जगत् को प्रकाश करने वाली उन केवली भगवान की वाणी मौजूद है तथा उस वाणी का अवलम्बन लेने वाले श्रेष्ठ रत्नत्रय के धारी मुनि हैं; इसलिए उन मुनियों की पूजन तो जिनवाणी की पूजन है तथा जिनवाणी की पूजन साक्षात् केवली भगवान की पूजन है - ऐसा भव्य जीवों को समझना चाहिए ।