+ आत्मध्यानी मुनियों के चरणों से स्पर्शित भूमि ही उत्तम तीर्थ -
स्पृष्टा यत्र मही तदंघ्रिकमलै:, तत्रैति सत्तीर्थतां;
तेभ्यस्तेऽपि सुराः कृताञ्जलिपुटा, नित्यं नमस्कुर्वते ।
तन्नामस्मृतिमात्रतोऽपि जनता, निष्कल्मषा जायते;
ये जैना यतयश्चिदात्मनिरता, ध्यानं समातन्वते ॥69॥
जिनकी पद-रज से यह भूतल, होता है सत्-तीर्थ अहो! ।
सुर-गण नित्य नमन करते हैं, हाथ जोड़ कर जिन मुनि को ॥
जिनके नाम-स्मरण मात्र से, भविजन हो जाते निष्पाप ।
जैन यतीश्वर ध्याते निज चेतन में प्रीति धरें अरु ध्यान ॥
अन्वयार्थ : जो यतीश्वर, आत्मा में लीन होकर ध्यान करते हैं, उन जैन यतीश्वरों के चरणकमलों से संस्पर्शित भूमि, उत्तम तीर्थ बन जाती है; उन यतीश्वरों को बड़े-बड़े देव आकर, हाथ जोड़ कर, मस्तक नवा कर नमस्कार करते हैं, उनके स्मरण मात्र से ही जीवों के समस्त पाप गल जाते हैं; इसलिए यतीश्वरों को सदा आत्मा के ध्यान में लीन रहना चाहिए ।