सम्यग्दर्शनबोधवृत्तनिचितः, शान्तः शिवैषी मुनिः;
मन्दैः स्यादवधीरितोऽपि विशदः, साम्यं यदालम्बते ।
आत्मा तैर्विहतो यदत्र विषम,-ध्वान्तश्रिते निश्चितं;
सम्पातो भवितोग्रदुःखनरके, तेषामकल्याणिनाम् ॥70॥
रत्नत्रयधारी मुनिवर हैं, शिवसुख-वाञ्छक एवं शान्त ।
अज्ञानी अपमानित करते, मुनि करते समता रसपान ॥
आत्मघात कर अज्ञानीजन, अकल्याण अपना करते ॥
जहाँ घोरतम तीव्र दु:ख हैं - ऐसे नरकों में जाते ।
अन्वयार्थ : सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र के धारी, शान्त और मोक्षाभिलाषी जो मुनि, दुष्टों से अपमानित होकर भी स्वच्छ अन्तःकरण से समता को धारण करते हैं, उनकी तो आत्मा शुद्ध ही होती हैं; किन्तु जो उनकी निन्दा करने वाले हैं, उन्होंने तो अपनी आत्मा का घात कर लिया क्योंकि वे दुष्ट कल्याणरहित पुरुष, ऐसे नरकों में गिरेंगे, जो भयंकर अन्धकार से व्याप्त है तथा कठिन दुःख का स्थान है; इसलिए दुष्ट, मुनियों की कैसी भी निन्दा करें तो भी उनको समता धारण करना ही योग्य है ।