+ मुनियों की स्तुति करने वाले भी महापुरुष -
(स्रग्धरा)
मानुष्यं प्राप्य पुण्यात्, प्रशममुपगता, रोगवद्भोगजातं;
मत्वा गत्वा वनान्तं, दृशि विदि चरणे, ये स्थिताः संगमुक्ताः ।
कः स्तोता वाक्पथातिक्रमणपटुगुणैराश्रितानां मुनीनां;
स्तोतव्यास्ते महद्भि:, भुवि य इह तदंघ्रिद्वये भक्तिभाज: ॥71॥
नरभव पाकर प्रशमभाव से, भोगों को भी जानें रोग ।
संग रहित हो वन में बसते, दर्शन-ज्ञान-चरित थिर हो ॥
वचनातीत गुणों से भूषित, गुरु-स्तवन कर सकता कौन? ।
पद-पंकज आराधक महत्-पुरुष ही भक्ति करने योग्य ॥
अन्वयार्थ : पुण्य योग से मनुष्य भव को पाकर, भोगों को रोगतुल्य जान कर, वन में जाकर, समस्त परिग्रह से रहित होकर, शान्ति को प्राप्त होकर, जो यतीश्वर, सम्यग्दर्शनसम्य ग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र में स्थित होते हैं, वचन-अगोचर गुणों से सहित, उन मुनियों की प्रथम तो कोई स्तुति करने में समर्थ ही नहीं है । यदि कोई स्तुति कर सके तो भी वे ही पुरुष, उनकी स्तुति कर सकते हैं, जो उन मुनियों के चरण-कमलों का आराधन करने वाले महात्मा पुरुष हैं ।