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तत्त्वार्थाप्ततपोभृतां यतिवराः, श्रद्धानमाहुर्दृशं;
ज्ञानं जानदनूनमप्रतिहतं, स्वार्थावसन्देहवत् ।
चारित्रं विरतिः प्रमादविलसत्, कर्मास्रवाद्योगिनां;
एतन्मुक्तिपथस्त्रयं च परमो, धर्मो भवच्छेदकः ॥72॥
तत्त्व, आप्त जिन-गुरुओं का, श्रद्धान कहा सम्यग्दर्शन ।
संशयहीन अप्रतिहत एवं, पूर्ण-प्रकाशक निज-पर ज्ञान ॥
सप्रमाद कर्मास्रव का, निरोध होना सम्यक्चारित्र ।
परम धर्म है यही मुक्ति का, मार्ग अहो! भव-भव छेदक ॥
अन्वयार्थ : गणधरादि देवों ने जीवादि पदार्थ, आप्त और गुरुओं पर श्रद्धान रखने को सम्यग्दर्शन कहा है; जिसमें किसी प्रकार की बाधा नहीं हैं, जो संशयरहित तथा पूर्ण है - ऐसे ज्ञान को सम्यग्ज्ञान कहा है तथा प्रमादसहित कर्मों के आगमन के रुक जाने को सम्यक्चारित्र कहा है; अतः सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्र की एकता ही मुक्ति का मार्ग और संसार का नाश करने वाला परम धर्म है ।