+ बाह्य तप आदि से अधिक रत्नत्रय की महिमा -
(मालिनी)
हृदयभुवि दृगेकं, बीजमुप्तं त्वशंका-;
प्रभृतिगुणसदम्भः, सारिणीसिक्तमुच्चैः ।
भवदवगमशाख:, चारुचारित्रपुष्प:;
तरुरमृतफलेन, प्रीणयत्याशु भव्यम् ॥73॥
अन्तर परिणति भू में बोया, सम्यग्दर्शनरूपी बीज ।
नि:शंकादि गुणों की निर्मल, नीर भरी क्यारी से सींच॥
शाखा सम्यग्ज्ञानमयी, चारित्र-सुमनयुत वृक्ष फलें ।
भव्य जीव को शीघ्र मोक्ष-रूपी फल से सन्तुष्ट करें॥
अन्वयार्थ : आचार्य कहते हैं कि अन्तःकरणरूपी पृथ्वी में बोया हुआ तथा निःशंकित आदि आठ गुणरूपी उत्तम जल की भरी हुई नालियों से सींचा हुआ सम्यग्दर्शनरूपी बीज, सम्यग्ज्ञानरूपी शाखाओं का धारक तथा चारित्ररूपी पुष्पों से सहित वृक्षरूप में परिणत होकर, शीघ्र ही भव्यजीवों को मोक्षरूपी फल से सन्तुष्ट करता है ।