दृगवगमचरित्रालंकृतः सिद्धिपात्रं;
लघुरपिनगुरु: स्यादन्यथात्वे कदाचित् ।
स्फुटवगतमार्गाे याति मन्दोऽपि गच्छन्;
अभिमतपदमन्यो नैव तूर्णाेऽपि जन्तुः ॥74॥
रत्नत्रय-भूषित मुनि यदि तप, करें अल्प पर सिद्धि लहें ।
मार्गविज्ञ यदि मन्द चलें, तो भी गन्तव्य-थल पहुँचें ॥
किन्तु रहित यदि रत्नत्रय से, घोर तपें पर मुक्ति नहीं ।
मार्ग अपरिचित शीघ्र चलें पर, पहुँचे इष्ट स्थान नहीं ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार जिसको मार्ग मालूम है - ऐसा मनुष्य यदि धीरे-धीरे चले तो भी अभिमत स्थान पर पहुँच जाता है, किन्तु जिसको मार्ग कुछ भी नहीं मालूम है, वह चाहे कितनी भी जल्दी चले तो भी वह अपने अभिमत स्थान पर नहीं पहुँच सकता; उसी प्रकार जो मुनि, तप आदि को तो बहुत थोड़ा करने वाला है, लेकिन जो सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान सम्यक्चारित्र का धारी है, वह शीघ्र ही मुक्ति को प्राप्त हो जाता है, किन्तु जो तप आदि तो बहुत करने वाला है, परन्तु सम्यग्दर्शन आदिरूप रत्नत्रय का धारी नहीं है, वह कितना भी प्रयत्न करे तो भी मोक्ष को नहीं पा सकता; इसलिए मोक्षाभिलाषियों को सम्यग्दर्शनादि की सबसे अधिक महिमा समझना चाहिए ।