+ रत्नत्रय की एकता ही मोक्षमार्ग में कार्यकारी -
वनशिखिनि मृतोऽन्धः, सञ्चरन् बाढमंघ्रि;
द्वितयविकलमूर्ति:, वीक्षमाणोऽपि खञ्जः ।
अपि सनयनपादोऽश्रद्दधानश्च तस्माद्;
दृगवगमचरित्रैः, संयुतैरेव सिद्धि: ॥75॥
जलते वन में अन्ध पुरुष यदि, दौड़े तो भी मर जाता ।
लँगड़ा देखे जलते वन को, किन्तु नहीं वह बच पाता ॥
जिसे नहीं श्रद्धान अग्नि का, स्वस्थ पुरुष भी बच न सकें ।
अत: ज्ञान-श्रद्धान-चरित हो, एक साथ तो मुक्ति मिले ॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार वन में अग्नि लगने पर उस वन में रहनेवाला अन्धा तो देख न सका, इसलिए दौड़ता हुआ भी मर गया । दोनों चरणों से लँगड़ा, लगी हुई अग्नि को देखता हुआ भी दौड़ न सकने के कारण तत्काल भस्म हो गया । आँख तथा पैर सहित भी आलसी इसलिए मर गया कि उसको अग्नि का श्रद्धान ही नहीं हुआ । इसलिए आचार्य उपदेश देते हैं कि अलग-अलग सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र, मोक्ष के लिए कारण नहीं हैं, किन्तु तीनों मिले हुए ही कारण हैं ।