बहुभिरपिकिमन्यैः, प्रस्तरैः रत्नसंज्ञै:;
वपुषि जनितखेदै:, भारकारित्वयोगात् ।
हत-दुरित-तमोभि:, चारु-रत्नैरनर्घ्यै:;
त्रिभिरपि कुरुतात्माऽलंकृतिं दर्शनाद्यैः ॥76॥
रत्न नामधारी पत्थर से, होता है क्या लाभ कहो ।
किन्तु भारयुत होने से बस! खेद मात्र ही तन में हो ॥
अत: पापमय अन्धकार के नाशक रत्नत्रय जानो ।
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चरित, बहुमूल्य रत्न से भूषित हों ॥
अन्वयार्थ : संसार में यद्यपि रत्न संज्ञा बहुत से पत्थरों की भी है, किन्तु उनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं क्योंकि वे केवल भारभूत होने के कारण शरीर को खिन्न करने वाले ही हैं; इसलिए आचार्य उपदेश देते हैं कि हे मुनीश्वरों! जो सम्पूर्ण अन्धकार के नाश करने वाले हैं, अमूल्य और मनोहर हैं - ऐसे सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञान-सम्यक्चारित्ररूपी तीनों रत्नों से ही अपनी आत्मा को शोभित करो, ये ही वास्तविक रत्न हैं ।