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जयति सुखनिधानं, मोक्षवृक्षैकबीजं;
सकलमलविमुक्तं, दर्शनं यद्विना स्यात् ।
मतिरपि कुमतिर्नु, दुश्चरित्रं चरित्रं;
भवति मनुजजन्म, प्राप्तमप्राप्तमेव ॥77॥
जिसके बिना ज्ञान मिथ्या है, चारित भी मिथ्या होता ।
शाश्वत सुख का है निधान अरु, बीजरूप है शिवतरु का ॥
सकल दोष से रहित अहो!, सम्यग्दर्शन जयवन्त रहें ।
बिन समकित यह नरभव पाया, पर नहिं पाये जैसा है ॥
अन्वयार्थ : जिस सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है, चारित्र मिथ्याचारित्र कहलाता है, प्राप्त हुआ भी मनुष्य जन्म न पाया हुआ-सा कहलाता है - ऐसा सुखस्वरूप तथा मोक्षरूपी वृक्ष का देने वाला एकमात्र निर्मल सम्यग्दर्शनरूपी रत्न, इस लोक में सदा जयवन्त है ।