+ अभेद रत्नत्रय ही निश्चय रत्नत्रय -
(मालिनी)
वचनविरचितैवोत्पद्यते भेदबुद्धि:;
दृगवगमचरित्राण्यात्मनः स्वं स्वरूपम् ।
अनुपचरितमेतच्चेतनैक - स्वभावं;
व्रजति विषयभावं योगिनां योगदृष्टेः ॥79॥
दर्शन-ज्ञान-चरित्र आत्ममय, भेदबुद्धि बस कहने में ।
अनुपचरित चैतन्यभाव ही, बसे योगी की दृष्टि में ॥
अन्वयार्थ : व्यवहारनय की अपेक्षा से ही सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र जुदे-जुदे मालूम पड़ते हैं । निश्चयनय की अपेक्षा से इनमें किसी प्रकार का भेद नहीं है, किन्तु ये तीनों आत्मस्वरूप ही हैं । समस्त लोकालोक को देखने वाले केवली भगवान, वास्तविक रीति से इन तीनों को चैतन्य से अभिन्नस्वरूप ही देखते हैं ।