+ क्षमाधारक की समस्त जगत् को सुखी देखने की भावना -
(स्रग्धरा)
दोषानाघुष्य लोके, मम भवतु सुखी, दुर्जनश्चेद्धनार्थी;
मत्सर्वस्वं गृहीत्वा, रिपुरथ सहसा, जीवितं स्थानमन्यः ।
मध्यस्थस्त्वेवमेवाऽखिलमिह हि जगत् , जायतां सौख्यराशिः;
मत्तो माभूदसौख्यं, कथमपि भविनः, कस्यचित्पूत्करोमि ॥85॥
दुर्जन होय सुखी मम दोषों, को दुनिया में घोषित कर ।
धन-लोभी सर्वस्व ग्रहण कर, बैरी मम जीवन लेकर ॥
मध्यस्थ गहें मेरी पदवी सब, जीव जगत् के सुखी रहें ।
करूँ पुकार जगत् में मुझसे, नहीं किसी को दु:ख पहुँचे ॥
अन्वयार्थ : मेरे दोषों को सबके सामने प्रकट कर संसार में दुर्जन सुखी होवें । धन का अर्थी, मेरे समस्त धन आदि को ग्रहण कर सुखी होवें । वैरी, मेरे जीवन को लेकर सुखी होवें । जिनको मेरा स्थान लेने की अभिलाषा है, वे मेरा स्थान लेकर आनन्द से रहें । जो राग-द्वेष रहित मध्यस्थ होकर रहना चाहें, वे मध्यस्थ होकर सुख से रहें । इस प्रकार समस्त जगत् सुख से रहे, किन्तु किसी भी संसारी को मुझसे दुःख न पहुँचे - ऐसा मैं सबके सामने पुकार-पुकार कर कहता हूँ ।