
किं जानासि न वीतरागमखिलं, त्रैलोक्यचूडामणिं;
किं तद्धर्मुपाश्रितं न भवता, किं वा न लोको जडः ।
मिथ्यादृग्भिरसज्जनैरपटुभिः, किञ्चित्कृतोपद्रवात्;
यत्कर्मार्जनहेतु स्थिरतया, बाधां मनो मन्यसे ॥86॥
वीतरागता पूज्य त्रिजग में, रे मन! क्या तू नहिं जाने ।
जिसका आश्रय लिया कहो वह, धर्म नहीं क्या पहिचाने ॥
दुर्जन द्वारा किये उपद्रव, से तू विचलित होता है ।
कर्मोपार्जन करता है क्यों, नहिं जाने तू जग जड़ है ॥
अन्वयार्थ : हे मन! मिथ्यादृष्टि दुर्जन मूर्खजनों से किये हुए उपद्रव से चंचल होकर कर्मों के पैदा करने में कारणभूत ऐसी वेदना का तू अनुभव करता है सो क्या तीन लोक के द्वारा पूजनीक वीतरागता को तू नहीं जानता है? अथवा जिस यति-धर्म का तूने आश्रय किया है, क्या उस धर्म को तू नहीं जानता है? अथवा यह समस्त लोक अज्ञानी जड़ है - इस बात का तुझे ज्ञान नहीं है?