+ अष्ट मदों के त्यागरूप उत्तम मार्दवधर्म -
(वसन्ततिलका)
धर्माङ्गमेतदिह मार्दवनामधेयं;
जात्यादिगर्वपरिहारमुशन्ति सन्तः ।
तद्धार्यते किमुत, बोधदृशा समस्तं;
स्वप्नेन्द्रजालसदृशं, जगदीक्षमाणैः ॥87॥
यह मार्दवधर्मांग! जाति बल, आदि मदों के त्याग-स्वरूप ।
इसके धारक, जग को देखें, इन्द्रजाल या स्वप्न-स्वरूप ॥
अन्वयार्थ : उत्तम पुरुष, जाति-बल-ज्ञान-कुल आदि गर्वों के त्याग को मार्दव धर्म कहते हैं - यह धर्मों का अंगभूत है; इसलिए जो मनुष्य, अपनी सम्यग्ज्ञानरूपी दृष्टि से समस्त जगत् को स्वप्न तथा इन्द्रजाल के तुल्य देखते हैं, वे अवश्य ही इस मार्दव नामक धर्म को धारण करते हैं ।